Sunday 22 January 2017

अभिनेता जॉनी वॉकर

               अभिनेता जॉनी वॉकर  
                                                           -अनिल वर्मा 







                                                
                                                    यह कहा  जाता हैं कि रुलाने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है, हंसाना लेकिन   फिल्म  जगत के  सुप्रसिद्ध   हास्य अभिनेता जॉनी वॉकर ने अपनी मजाकिया भाव-भंगिमाओं से करोड़ों सिनेप्रेमियों को न केवल गुदगुदाया, बल्कि अपनी 'चम्पी' (गीत) से उनकी सारी थकान भी उतारते रहे. वॆसे उनका असल नाम बदरुद्दीन जमालुद्दीन क़ाज़ी था।

                                       .सन  50 और 60 के दशक में हिंदी फिल्मों में कई यादगार भूमिका करने वाले जॉनी वाकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में ११ नवम्बर १९२६ को एक .मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था, वे बचपन से ही अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे और प्राय: वह लोगो की नकल उतार कर सबको हँसाया करते थे | उनके पिता जमालुदीन काजी इंदौर में एक मिल में नौकरी करते थे. मिल बंद होने के बादमुफलिसी के दौर में  सन  1942 मेंउनका  पूरा परिवार मुंबई पहुंच गया. पिता के लिए अपने 15 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो रहा था.इन  मुश्किल हालात में 10 भाई-बहनों में दूसरे नंबर के जॉनी वाकर पर परिवार की जवाबदारी आ गई.और वह छठी जमात तक उर्दू की तालीम हासिल करने के बाद 1942 में अपने पिता के साथ मुम्बई में फल, मूगफली बेचने में जुट गये और जीवनयापन के लिए उन्होंने आर्मी कैंटीन में नौकरी कर ली |फिर  कई नौकरी में हाथ आजमाने के बाद आखिर में मुंबई मे उनके पिता के एक परिचित  पुलिस इंस्पेक्टर की सिफारिश पर जॉनी वाकर को बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई.वह इस नौकरी को पाकर  काफी खुश हो गए थे ,क्योंकि उन्हें मुफ्त में ही पूरी मुंबई घूमने को मौका मिल जाया करता था, इसके साथ ही उन्हें मुंबई के स्टूडियों में भी जाने का मौका मिल जाया करता था.

                              इसी दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात फिल्म जगत के मशहूर खलनायक एन.ए.अंसारी और के. आसिफ के सचिव रफीक से हुई. फिर उन्हें जल्द ही फिल्मों में भीड़ वाले सीन में खड़े होने का मौका मिलने  लगे . जिसके लिए उन्हें रोजाना 5 रुपए मिला करते थे. जिसमें से एक रुपया सप्लायर ले लेता। शूटिंग के बीच में फुर्सत के दौरान सितारों के मनोरंजन के लिए लोग अक्सर बदरूदीन  को बुला लेते थे और लतीफे सुनाने को कहते थे । लंबे संघर्ष के बाद जॉनी वाकर को फिल्म 'आखिरी पैमाने' में एक छोटा सा रोल मिला. , लेकिन इससे भी उन्हें कोई पहचान नहीं मिल सकी। इस फिल्म में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 80 रुपए मिले, जबकि बतौर बस कंडकटर उन्हें पूरे महीने के मात्र 26 रुपए ही मिला करते थे।  यह कोई 1950 के आसपास की बात है, जॉनी वाकर का बस कंडक्टरी करने का अंदाज काफी निराला था। वह सवारियों के संग खूब मस्ती करते और तरह-तरह की आवाजें निकालकर उनका मनोरंजन करते थे । एक दफा बलराज साहनी की कार खराब हो गई और वह संयोग से जिस बस में जॉनी वाकर कंडक्टरी करते थे ,उसी में चढ़ गए। उन्होंने जॉनी के अनोखे अंदाज को देखा , तो वह उनसे काफी प्रभावित हुए। परन्तु इसके बाद जब 'हलचल' की शूटिंग पर बलराज साहनी ने जब बदरूदीन  को दिलीप कुमार, याकूब जैसे स्टार्स का मनोरंजन करते देखा, तो उन्हें बुरा लगा। उन्होंने बाद में बुलाकर बदरूदीन  से कहा, 'तुम कलाकार हो, भांड नहीं, कला की इज्जत करना सीखो।'  बदरूदीन ने जब अपनी मजबूरी बताई, तो बलराज साहनी ने उन्हें एक आइडिया सुझाया और अगले दिन गुरुदत्त के ऑफिस में आने को कहा। बलराज साहनी उन दिनों 'बाज़ी' की स्क्रिप्ट लिख रहे थे। अगले दिन गुरुदत्त अपने ऑफिस में चेतन आनंद के साथ कुछ डिस्कस कर रहे थे कि बदरुद्दीन अचानक आ धमके और शराबी की ऐक्टिंग शुरू कर दी। उन्होंने न सिर्फ धमाल मचाया, बल्कि गुरुदत्त के साथ बदतमीजी भी शुरू कर दी। हरकतें जब हद को पार करने लगीं, तो गुरुदत्त को गुस्सा आ गया। उन्होंने स्टाफ को बुलाया और शराबी को बाहर सड़क पर फेंक आने का फरमान जारी कर दिया। तभी बलराज साहनी हंसते हुए वहां आ पहुंचे और गुरुदत्त को सारा माजरा समझाया। गुरुदत्त इतने खुश हुए कि पीठ थपथपा कर न केवल उनकी ऐक्टिंग की दिल खोलकर तारीफ की और उनकी प्रतिभा से खुश होकर 'बाज़ी' में फौरन एक रोल दिया,. इसके बाद बदरुदीन ने फिर कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा।  यह  कहा जाता है कि उन्हें 'जॉनी वाकर' का फ़िल्मी नाम देने वाले गुरु दत्त ही थे. उन्होंने वाकर को यह नाम एक लोकप्रिय व्हिस्की ब्रांड के नाम पर दिया था. हालांकि, फिल्मों में अक्सर शराबी की भूमिका में नजर आने वाले वाकर असल जिंदगी में शराब को कतई हाथ नहीं लगाते थे  । जानी वकार ने हिंदी सिनेमा में कॉमेडी  को एक नया आयाम दिया था ।हालाकिं  जॉनी वॉकर की जो चटपटी  आवाज़ दर्शक सुनते थे,वो आवाज़ उनकी बनायी हुई थी ,उनकी वास्तविक आवाज़ भारी थी। उन्होंने  फिल्मों में अपनी बेहतरीन अदाकारी का नमूना दिखाने के अलावा कुछ गीत भी गए थे ।

                                  'बाज़ी', 'आर-पार' ', मिस्टर एंड मिसेज 55', 'सीआईडी', 'काग़ज़ के फूल', 'प्यासा' जैसी गुरु दत्त की फ़िल्मों की एक समानांतर पहचान बने जॉनी वॉकर।. गुरूदत्त की फिल्मों के अलावा जॉनी वाकर ने टैक्सी ड्राइवर, देवदास, नया अंदाज, चोरी चोरी, मधुमति, मुगल-ए-आजम, मेरे महबूब, बहू बेगम, मेरे हजूर जैसी कई सुपरहिट फिल्मों मे अपने हास्य अभिनय से दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया   .'चोरी-चोरी', 'मधुमती',चौदहवीं का चाँद, नया दौर, मधुमती, प्रतिज्ञा, शिकार 'मेरे महबूब', 'आनंद' आदि फ़िल्मों में जॉनी वॉकर मीठी फुहार की तरह राहत देने आते थे, जब दर्शकों को फ़िल्म की गंभीरता से उबरना मुश्किल लगने लगता था। जॉनी वॉकर के अभिनय में इतनी ऊंचाई थी कि आमतौर पर हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्मों की जगह गंभीर फ़िल्मों की गंभीरता के बर्फ़ को तोड़ने की जवाबदेही उन्हें मिलती थी , जॉनी वाकर की हर फिल्म मे एक या दो गीत उन पर अवश्य फिल्माए जाते थे ,जो काफी लोकप्रिय भी हुआ करते थे. वर्ष 1956 मे प्रदर्शित गुरूदत्त की फिल्म सीआईडी में उन पर फिल्माया गाना' ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हट के जरा बच के ये है बंबई मेरी जान' ने धूम मचा दी.  उन्होंने अपने चेहरे के हाव-भाव की बदौलत ही 'जाने कहां मेरा जिगर गया जी' (मिस्टर एंड मिसेज 55), 'सिर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए' (प्यासा) और 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां' जैसे गीतों को सदा के लिए अमर कर दिया. इसके बाद हर फिल्म में जॉनी वाकर पर गीत अवश्य फिल्माए जाते रहे. यहां तक कि फाइनेंसर और डिस्ट्रीब्यूटर की यह शर्त रहती थी कि फिल्म में जॉनी वाकर पर एक गाना अवश्य होना चाहिए. जानी वाकर अपने मासूम, लेकिन शरारती चेहरे से सबको अपनी ओर खींचने का माद्दा रखते थे।  रजनीकांत अक्सर कहा करते थे कि बस कंडक्टर से ऐक्टर बनने की प्रेरणा उन्हें जानी वाकर  से ही मिली थी।

                                    जॉनी वॉकर एक विनम्र आदमी थे।  उन्हें फिल्म मधुमती के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार और फिल्म शिकार के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार मिला था।उन्होंने  खूब फिल्में कीं, कई फिल्में बनाईं और फिल्म  'पहुंचे हुए लोग' का निर्देशन किया। उन्होंने 35 वर्षों में करीब ३२५ फिल्मो में काम किया, परन्तु 70 के दशक आने तक  कॉमेडी के   स्तरमें  गिरावट आने के बाद जॉनी वाकर ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया. इसी दौरान ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद मे जॉनी वाकर ने एक छोटी सी भूमिका निभाई. इस फिल्म के एक दृश्य मे वह राजेश खन्ना को जीवन का एक ऐसा दर्शन कराते है कि दर्शक अचानक हंसते हंसते संजीदा हो जाता है. गुलज़ार और कमल हासन के बहुत जोर देने पर वर्ष 1998 मे प्रदर्शित फिल्म चाची 420 मे उन्होंने एक छोटा सा भावनात्मक रोल निभाया था , जो दर्शको को काफी पसंद आया था ।

                       १९५५ में   'आर पार' की शूटिंग के दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात नायिका शकीला की छोटी बहन नूरजहां से हुई,  जिसका एक गीत नूरजहाँ और वाकर पर फिल्माया जाना था. इस गीत के बोल थे 'अरे ना ना ना ना तौबा तौबा.'  ।यह  मुलाकात पहले मोहब्बत और फिर गुपचुप निकाह में बदल गई। जॉनी वाकर ने परिवार की इच्छा यह निकाह किया था।उन्होंने  बांद्रा और फिर अंधेरी में बने अपने बंगले का नाम 'नूर विला' रखा. जॉनी वॉकर और नूर के तीन बेटियाँ  कौसर, तसनीम, फ़िरदौस है और तीन बेटे नाज़िम, काज़िम और नासिर हैं । जॉनी वाकर महज छठी कक्षा तक पढ़ाई कर पाए थे. उन्होंने इस कसक को दूर करने के लिए अपने बेटे और बेटियों को अच्छी तालीम दी. एक बेटे को तो उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भी भेजा. उनके बेटे नासिर एक प्रसिद्ध फ़िल्म और टीवी अभिनेता है।

                                                ताउम्र दर्शकों को हंसाते रहे जॉनी वाकर 29 जुलाई, 2003 को सबको रोता हुआ छोड़कर  दुनिया से चले गए.  उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शोक जताते हुए कहा था, "जॉनी वाकर की त्रुटिहीन शैली ने भारतीय सिनेमा में हास्य शैली को एक नया अर्थ दिया है '' आज इस महान  कॉमेडियन को गुजरे हुए करीब 14  साल बीत चुके हैं,पर  उनका मस्तमौला अंदाज और बेजोड़ अदाएगी आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।






                                                                                                                 -अनिल वर्मा














 

  



 



Friday 9 October 2015

रविन्द्र जैन का निधन : संगीत के सुनहरे अध्याय का अंत

रविन्द्र जैन का निधन : संगीत के सुनहरे अध्याय का अंत 
                                                                                - अनिल वर्मा

                                 






                     









                    हिंदी फिल्मो के जाने माने संगीतकार और गीतकार रवींद्र जैन का आज ९ अक्टूबर २०१५ को शाम ४ बजे मुंबई  के लीलावती अस्‍पताल  में ७१ साल की उम्र में निधन हो गया है. वह लंबे समय से बीमार थे और पिछले कई दिनों से यूरिन इन्फेक्शन से जूझ रहे थे। इसके बाद उन्हें किडनी में दिक्कत हो गई थी। उनका लीलावती अस्पताल में आईसीयू में इलाज चल रहा था। बीते रविवार को वे नागपुर में थे, लेकिन बीमारी की वजह से वहां होने वाले कंसर्ट में हिस्सा नहीं ले पाए। नागपुर के वोकहार्ट हॉस्पिटल से चार्टर्ड प्लेन के जरिए उन्हें लीलावती अस्पताल लाया गया था।

                पिता पंडित इन्द्रमणि जैन तथा माता किरणदेवी जैन के घर  रवींद्र जैन का जन्म २८  फरवरी १९४४  को यूपी के अलीगढ़ में हुआ था। वे जन्म से ही देख नहीं पाते थे। उनके पिता पंडित इन्द्रमणि जैन संस्कृत के जाने-माने स्कॉलर और आयुर्वेदाचार्य थे। वे बचपन से इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि एक बार सुनी गई बात को कंठस्थ कर लेते, जो हमेशा उन्हें याद रहती। परिवार के धर्म, दर्शन और अध्यात्ममय माहौल में उनका बचपन बीता। वे प्रतिदिन मंदिर जाते और वहाँ एक भजन गाकर सुनाना उनकी दिनचर्या में शामिल था। रवीन्द्र भले ही दृष्टिहीन रहे हों, मगर उन्होंने बचपन में खूब शरारतें की हैं।

                                             रवीन्द्र अपने नाम के अनुरूप बंगाल के  रवीन्द्र-संगीत की ओर आकर्षित हुए। ताऊजी के बेटे पद्म भाई के कलकत्ता चलने के प्रस्ताव पर वह फौरन राजी हो गए। पिताजी से जेबखर्च के ७५  रुपए और माँ से  चावल-दाल की कपड़े की पोटली लेकर वह कलकत्ता पहुंच गए फिल्म निर्माता राधेश्याम झुनझुनवाला के जरिए रवीन्द्र को संगीत सिखाने की एक ट्‌यूशन मिली। जिसमे मेहनताने में चाय के साथ नमकीन समोसा मिला । पहली नौकरी बालिका विद्या भवन में 40 रुपए महीने पर लगी। इसी शहर में उनकी मुलाकात पं. जसराज तथा पं. मणिरत्नम्‌ से हुई। नई गायिका हेमलता से उनका परिचय हुआ। वे दोनों बांग्ला तथा अन्य भाषाओं में धुनों की रचना करने लगे। हेमलता से नजदीकियों के चलते उन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी से ऑफर मिलने लगे। एक पंजाबी फिल्म में हारमोनियम बजाने का मौका मिला। सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुति के १५१  रुपए तक मिलने लगे। फिर  संजीव कुमार के संपर्क में  आने के बाद कलकत्ता का यह पंछी उड़कर मुंबई आ गया।   

                       जब वह सन्‌ १९६८  में राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ मुंबई आए ,तो पहली मुलाकात पार्श्वगायक मुकेश से हुई। रामरिख मनहर ने कुछ महफिलों में गाने के अवसर जुटाए। नासिक के पास देवलाली में फिल्म 'पारस' की शूटिंग चल रही थी।  संजीव कुमार ने वहाँ बुलाकार निर्माता एन. एन. सिप्पी से मिलवाया। रवीन्द्र ने अपने खजाने से कई अनमोल गीत तथा धुनें एक के बाद एक सुनाईं। श्रोताओं में शत्रुघ्न सिन्हा, फरीदा जलाल और नारी सिप्पी थे। अंततः उनका पहला फिल्मी गीत १४  जनवरी १९७२  को मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ। 

                            उन्होंने फिल्म सौदागर में उन्होंने मीठी यादगार धुनें बनाईं और स्वरबद्ध भी किया था ,जो लोकप्रिय हो गईं। फिर उन्होंने चोर मचाए शोर , गीत गाता चल , चितचोर  ,तपस्या ,  सलाखें , फकीरा ,दीवानगी और अंखियों के झरोखों में जैसी हिट फिल्मों का संगीत दिया था । एक महफिल में रवीन्द्र-हेमलता गा रहे थे, श्रोताओं में राज कपूर भी थे। उनका 'एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा' गीत सुनकर राज कपूर झूम उठे, बोले- 'यह गीत किसी को दिया तो नहीं?'  रवीन्द्र जैन ने तुरंत कहा, 'राज कपूर को दे दिया है।' बस, यहीं राज कपूर के शिविर में उनका प्रवेश हो गया । 

                              टी. वी. सीरियल ‘रामायण’, ‘श्रीकृष्णा’, 'लव कुश', 'जय गंगा मैया', 'साईँ बाबा' और 'धरती का वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान' सहित कई पॉपुलर शोज में म्यूजिक और आवाज दी। उन्हें बड़ा ब्रेक राज कपूर ने १९८५  में फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' में दिया था। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेठ संगीतकार का फिल्‍मफेयर अवार्ड भी मिला था। इसके बाद ‘दो जासूस’ और ‘हिना’ के लिए भी उन्होंने म्यूजिक दिया। राजश्री प्रोडक्शन की 'नदिया के पार', 'विवाह' और 'एक विवाह ऐसा भी' जैसी कई सुपरहिट फिल्मों में भी उन्होंने म्यूजिक दिया था।
उ।
                            रवींद्र जैन को भारत सरकार की ओर से पद्मश्री पुरस्कार दिया गया था.मेरा यह सौभाग्य है गत अक्टूबर २०१४ को मुझे उनसे सागर में एक कार्यक्रम में मिलने का मौका मिला था , तब उनके मृदु व्यवहार और सरलता का मै कायल हो गया था

रविन्द्र जैन ने मन की आँखों से दुनियादारी को समझा। उन्होंने सरगम के सात सुरों के माध्यम से  जितना समाज से पाया, कई  गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। वे मधुर धुनों के सर्जक होने के साथ गायक भी रहे और अधिकांश गीतों की आशु रचना भी उन्होंने कर सबको चौंकाया है। मन्ना डे के दृष्टिहीन चाचा कृष्णचन्द्र डे के बाद रवीन्द्र जैन दूसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने दृश्य-श्रव्य माध्यम में केवल श्रव्य के सहारे ऐसा इतिहास रचा, जो युवा-पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बन गया है। अपनी दुनिया, अपनी धुन में मगन रहने वाले रवींद्र ने एक बार कहा था कि वह संगीत के सुरों को अलग-अलग लोगों को करीब लाने का जरिया मानते हैं और अपने गीतों, अपनी रचनाओं से पीढ़ियों, सरहदों और जुबानों के फासले कम करना चाहते हैं।  रविंद्र जैन को भारतीय सिनेमा जगत में सबसे खूबसूरत, कर्णप्रिय और भावपूर्ण गीतों के लिए उन्हें सदैव जाना जाता रहेगा। 

        रविन्द्र जैन केकई लोकप्रिय आज भी लोग गुनगुनाते है , उनमे से चंद इस प्रकार है ……
    १-आज से पहले, आज से ज्यादा , २- अखियों के झरोखों से मैने देखा जो सावरे , ३-घुंगरु की तरह, बजता ही रहा हूँ मै , ४-गोरी तेरा गाँव बडा प्यारा, मैं तो गया मारा , ५- गूँचे लगे हैं कहने, फूलों से भी सुना हैं तराना प्यार का ,६- हर हसीन चीज का मैं लतबगार हूँ ,  ७-जब दीप जले आना, जब शाम ढ़ले आना ,८-तेरा मेरा साथ रहे ,९-तू जो मेरे सूर में, सूर मिला ले, संग गा ले , १०- गीत गाता चल, ओ साथी गुनगुनाता चल,११- श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम , १२- सजना है मुझे सजना के लिए , १३-ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में, १४-एक राधा एक मीरा, १५ - घुंघरू की तरह , १६- हुस्न पहाड़ों का।,१७- मैं हूं खुशरंग हिना , १८- कौन दिशा में लेके।

                                                                     - अनिल वर्मा  


Monday 23 February 2015

फ़िल्मी माँ निरुपा रॉय





                          वह सचमुच माँ ही थी : निरुपा रॉय
                                                                                                                 - अनिल वर्मा 

                      






                                                                  फिल्मों की मायावी दुनिया इतनी अदभूद है कि फिल्मों के नायक वास्तविक जीवन के महानायकों से भी विराट लगते  है और अनेक श्रेष्ठ  कलाकार तो अपने किरदारों में डूबकर अपने निज वजूद को भी आमूल मिटा देते है और उनकी फ़िल्मी छवि हमारे मानसपटल पर चिरस्थायी अंकित हो जाती है। ऐसी ही एक नायब फिल्म अभिनेत्री थी ,निरुपा रॉय जी , जिन्होंने करीब ३ दशक तक लगातार ऐसी बदनसीब माँ का रोल अदा किया ,जिस पर ज़माने भर कहर टूटता है और वो अक्सर अपने  बच्चो को खोकर सबकी सहानुभूति का पात्र बन जाती थी।  उनकी हर फिल्म में ऐसे भावुक टाइप्ड रोल से मुझे उनसे इतनी ज्यादा चिढ़ हो गयी थी कि फिल्म में उनके आते ही मैं बौखला जाता था कि अब ये टसुयेबहाउ फिर अपने बच्चे को खो देगी और पूरी फिल्म में टेंशन देती रहेगी . पर मेरे मानस पर वर्षो से अंकित निरुपा जी की यह नकारात्मक छवि उनसे प्रत्यछ मिलते ही पल भर में खंडित हो गयी और उनके ममतामयी व्यक्तित्व के सामने में स्वमेव ही नतमस्तक हो गया।


                                निरुपा  रॉय जी भारतीय सिने जगत की वह महान शख्सियत  है ,जो किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। उन्होंने महज़ १५ वर्ष की आयु में सन १९४६ में अपनी फ़िल्मी जीवन की शुरुवात की थी और ५३ वर्षो तक लगातार नायिका , सहनायिका और चरित्र अभिनेत्री के विविधतापूर्ण किरदारो को जीवंतता प्रदान करते हुए २८८ फिल्मों में काम किया था। उन्हें ३ बार फिल्मफेयर अवार्ड और १ बार लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड भी मिला था।

                            सन २००४ में राखी के पर्व पर जब मेरी बहिन अनीता अपने बेटे जय के पास मुंबई गयी थी ,तो मै भी मुंबई चला गया था और सदैव की भांति पसंदीदा  फ़िल्मी सितारों से मिलने के लिए प्रयासरत था। ३० अगस्त को मैं कोलाबा में अपनी फेवरेट हेलेन जी  का घर खोजते हुए संयोगवश नेपियन सी रोड की एम्बेसी बिल्डिंग तक पंहुच गया था ,जहाँ   ग्राउंड फ्लोर पर स्थित फ्लैट न. १ में निरुपा रॉय रहती थी । सबसे पहले उनके पुत्र कृष्ण मिले ,उन्हें अपना परिचय देते हुए निरुपा जी के बारे में पूछा ,तो वो तुरंत  उन्हें बुला लाये। मैं  फ़िल्मी दुनिया की उस माँ को एकटक देखते रह गया , वो मुझसे कोई पूर्व परिचय ना  होने पर भी सम्मानपूर्वक अपने घर के भीतर ले गयी , उस समय वो मैक्सी या गाउन पहनी थी , यद्दपि उनके चेहरे पर लम्बी बीमारी के वजह से काफी सूजन और मलिनता  थी , फिर भी वो इतने उत्साह और स्नेह से मिली कि पल भर में उनके प्रति मेरी धारणा बदल गयी । वो बहुत सी फिल्मो में अभिताभ बच्चन की माँ बनी थी और  अमिताभ  जी उन्हें माँ के समान सम्मान देते थे। वास्तव में उस दिन उनके ममतापूर्ण मधुर व्यवहार से मुझे यूँ अहसास हुआ कि वो सचमुच पूरे देश की माँ है ।

                                                                         मैं उनके पुराने पैटर्न के ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठा था। वहां दीवारो पर अनेक पुराने महानायकों के साथ उनके फोटो लगे थे। उनसे फिल्म ,अभिनय ,रोल आदि के बारे में अनेक बाते हुई। उन्होंने मुझे अपने पति से भी मिलवाया ,जो काफी मृदुभाषी थे।उस समय मुझे उनकी एक फिल्म 'दीवार'  का अभिताभ जी और शशि कपूर की वो चर्चित डॉयलॉगबाज़ी  याद आ गयी  कि 'आँय तुम्हारे पास क्या है ,मेरे पास बैंक बैलेंस , गाड़ी ,बंगला है ,मेरे पास माँ है ',  यही तो वही माँ थी। मैंने जब कैमरे से उनका फोटो खींचना चाहा , तो उन्होंने मृदुलता से बीमारी के कारण चेहरा बिगड़ जाने  के कारण इसके लिए मना करते हुए माफ़ी चाही और यह बोली कि मैं अपनी एक फोटो आपको देती हूँ। फिर उन्होंने मुझे अपना एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो अपने ऑटोग्राफ के साथ' विथ लव ' लिखकर दिया था ।  वह फोटो आज भी मेरे अल्बम में एक अमूल्य निधि के रूप में रखी हुई है।

                                                     जब मैंने उनसे विदा लेते हुए आदरभाव से उनके चरणस्पर्श किये ,तो उन्होंने मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए आशीर्वाद दिया था . इस यादगार मुलाकात के चंद दिनों बाद ही १३ अक्टूबर २००४ को निरुपा रॉय जी का निधन हो गया। जाने वाले चले जाते है और पीछे बाकी रह जाती है ,उनकी अमिट यादें। आज भी जब फ़िल्मी  परदे पर निरुपा जी को देखता हूँ ,तो बरबस ही श्रद्वा और सम्मान से इस ममतामयी माँ के लिए मेरा सिर झुक जाता है और मन बहुत भावुक हो जाता है जब उनके साथ अपनी वास्तविक माँ को खो देने के जख्म टीसने लगते  है।

                                                                                                                          - अनिल वर्मा

Sunday 15 February 2015

                   
                     फिल्म ''शाह -ए - मिश्र '' १९४६
                                                                                                                             -अनिल वर्मा 


                     सन  १९४५-४६ तक फिल्मो में संघर्ष के कठिन दिनों में अजीत की मुलाकात एक व्यक्त्ति गोविंदराम सेठी से हुई ,जो मूक फिल्मो के दौर से भारतीय सिनेमा से जुड़े हुए थे।,उसने अजीत से वायदा किया कि  जब भी उसे  मौका मिलेगा वह उन्हें हीरो बनाएगा।  एक सुबह सेठी ने उन्हें बुलाकर साथ चलने को कहा , तब अजीत को यह पता लगा कि विष्णु सिनेटोन जो केवल धार्मिक फिल्मे बनाती थी वह एक स्टंट फिल्म बनाने जा रही है, इस तरह अजीत को हीरो के रूप में अपनी पहली फिल्म "शाह-ए -मिश्र '' मिल गयी ,इसमें सहायक निर्देशक केदार शर्मा  थे , जिनसे अजीत की अच्छी दोस्ती हो गयी थी।यह फिल्म १९४६ में आई थी , इसमें उनकी नायिका गीता बोस थी . इस समय तक अजीत अपना मूल नाम हामिद खान ही फिल्मों में भी उपयोग करते थे। किस्मत प्रोडक्शन की इस फिल्म को अनुभवी निर्देशक जी. आर. सेठी ने निर्देशित किया था ,  हालांकि  यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल रही , पर आकर्षक और सजीले व्यक्तित्व के दम पर अजीत फिल्मकारों को अपनी और आकृष्ट करने में सफल रहे ।

           इस फिल्म में गीत रूपबानी के थे और संगीत निर्देशन शांति कुमार देसाई का था। फिल्म में निम्नलिखित गीत थे -
१-फूलो को छेड़कर .... २-खामोश रहे ए  हुस्न तेरे बन्दे ....३-दिल बेचता हूँ सरकार ....४- गा  रही है जिंदगी ...
५- जमीन तेरी फलक तेरा ....६-ए रहमत  बारी ....७-दुनिया की जन्नत....८- इंक़लाब जिंदाबाद ....

Saturday 14 February 2015

         
      अजीत फिल्म '' आन बान  '' (१९५६) में 
                                                          
                                                                                                                         - अनिल वर्मा

    
 




                                                                                                                      

                     सन १९५६ में निर्देशक डी.डी. कश्यप के निर्देशन में कश्यप प्रोडक्शन की फिल्म '' आन बान '' एक प्रेम त्रिकोण पर आधारित सामाजिक फिल्म थी. इसमें हीरो अजीत साहेब थे ,उनकी हीरोइन नलिनी जयवंत थी , यह उल्लेखनीय है कि उस दौर में अजीत और नलिनी जयवंत की लोकप्रिय जोड़ी ने १५ फिल्मों में एक साथ काम किया था।  उनके अलावा  फिल्म में प्राण , महिपाल ,  उषा किरण , उल्लास ,मनमोहन कृष्ण , निरंजन शर्मा ,प्रतिभा देवी ,माया देवी  की महत्वपूर्ण भूमिकाये थी।

                  इस फिल्म को प्रख्यात संगीतकार हुस्नलाल भगतराम ,गीतकार क़मर जलालाबादी और मोह. रफ़ी की प्रतिभाशाली तिकड़ी के नायब गीतों  के लिए याद किया जाता है. फिल्म का उनका यह गीत '' भगवान तुम्हारी दुनिया में क्यों दिल ठुकराते जाते है '' काफी लोकप्रिय हुआ था . इसके अलावा फिल्म में मोह. रफ़ी के अलावा आशा भोसले ,लता मंगेशवर ,मुबारक बेगम के गाये यह गीत थे --१-ओ आसमानवाले आसमानवाले जाने नहीं देते …, २-पी पी की बोल बोल पपीहे , ३-मुरली मनोहर देवकी नंदन…, ४-तूने कैसी आग लगाई …५-,झूम रही है जिंदगी …,६-मेरे दिल में तुम छिपे हो …,७ अजी इस फानी दुनिया में …,भी कर्णप्रिय गीत थे।

फिल्म ''नीली आँखें ''


    अजीत फिल्म ''नीली आँखें ''(१९६२) में

                                                        -अनिल वर्मा 
 
       

                    



                                           फिल्म '' नीली आखें '' सोसाइटी पिक्चर्स के बैनर तले  बनी थी. सन १९६२ में रिलीज़ इस फिल्म के निर्देशक वेद मारन और प्रोड्यूसर अब्दुल रहीम थे। अजीत की यह  एकलौती फिल्म है ,जिसमे  उनका डबल रोल नज़र आता है । उस दौर की निहायत खूबसूरत अदाकारा  शकीला उनकी  नायिका थी . उनके साथ फिल्म में हेलेन , राज मेहरा , तिवारी ,शेट्टी, जॉनी वॉकर , टुनटुन के भी अहम किरदार थे। निसंदेह यह एक दोयम दर्जे की फिल्म थी ,जिसकी कहानी बेहद  कमजोर थी ,निर्देशन भी औसत दर्जे का था , कलाकारों का अभिनय काफी साधारण था और इस मिस्ट्री का अंत इतना सोचा समझा था की हर दर्शक इंटरवल में ही फिल्म का अंत भाँप चुका था , नजीजा वही ढाक के तीन पात, फिल्म  फ्लॉप रही।

                                  फिर भी फिल्म का गीत -संगीत काफी उत्कृष्ट स्तर का था। अमर गायक मुकेश , मोह. रफ़ी , मन्ना डे ,सुमन कल्यानपुर ,गीता दत्त के गाये मधुर सुरीले गीतो ने फिल्म को जीवंत बनाये रखा था। गीतकार गुलशन बाबरा के गीतों को संगीत निर्देशक दाताराम वाडकर ने बखूबी सजाया सवांरा था।  फिल्म  में प्रमुख गीत इस प्रकार थे -(१ )ये नशीली हवा छा रहा नशा.…(२) नज़र का झुक जाना .…,(३) पंछी अब तू है जाल में धोका है तेरी चाल में .…(४ ) देखिये न इस तरह झूम के .…(५ ) ए  मेरी जाने वफ़ा .… (६ )  नज़रों का ऐसा कांटा ।


           फिल्म की कहानी कुछ इस प्रकार थी। लखपति सेठ  रायबहादुर (तिवारी) की इकलौती बेटी शीला (शकीला )एक गरीब कवि (अजीत प्रथम रोल)  से मोहब्बत करती है , लालची सेठ कही से हीरे हड़पने के चक्कर में है , एक अपराधी गैंग भी इसी फ़िराक में है।  कहानी आगे बढ़ती है ,जब शीला यह देखकर दंग रह जाती है कि उसका पिता अपने मरहूम दोस्त के जिस बेटे दिलीप (अजीत दूसरा रोल) को लंदन से लाता है, जो प्रेमी कवि का हमशक्ल है।  एक ज्योतिषी प्रेम यह भविष्वाणी करता है कि सेठ किसी घोर संकट में फँसने वाला है और दिलीप किसी का खून करेगा। परेशान शीला दिलीप पर नज़र रखने पंजवानी (जॉनी वाकर ) को कहती है , अचानक दिलीप कही गायब हो जाता है , फिर भारी मारधाड़ , खून खराबा और भागमभाग होती है ,हीरे भी चोरी हो जाते है।  आखिर यह पर्दाफाश हो जाता है कि दिलीप और कवि दोनों एक ही व्यक्ति अजीत है ,जो सी. आय. डी. ऑफिसर  है , प्रेम खूनी  है और सेठजी , प्रेम और उनका पार्टनर सब हीरे लूटना चाहते थे। हमेशा की तरह हीरो हीरोइन की शादी  के साथ फिल्म का सुखद अंत हो जाता है।
                                                                                                                              -अनिल वर्मा
                     

Thursday 12 February 2015

अजीत फिल्म चंदा की चांदनी (१९४८) में
                                                                                 -अनिल वर्मा
                                                                            
                       अजीत साहब ने सन १९४५ से १९९५ तक करीब ५० वर्ष तक भारतीय सिने जगत में अपनी बेहतरीन अदाकारी का जादू बिखेरा है , इतने लम्बे अरसे बाद आज उनकी पुरानी फिल्मों के बारे में जानकारी एकत्र करना भूसे के ढेर से सुई खोजने की भाँति दुरूह कार्य है , फिर भी इतिहास की इस  धरोहर का वज़ूद बचाये रखने के अहम दायित्व के निर्वाह के लिए इसका संकलन आवश्यक है।

                अजीत के शुरुवाती दौर की फिल्म '' चन्दा की चाँदनी ''जेमनी कम्बाइन्स प्रोडक्शन की ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्म थी , जिसे एस.एस. वासन ने निर्देशित किया था।  ६ जनवरी १९४८ को रिलीज़ यह फिल्म स्वाधीन भारत की प्रारंभिक युग  की फिल्म थी , पर ऐसा भी नहीं कि देश के बंटवारे की त्राषदी के विषम परिस्थितियों के उस दौर  में बहुत कम फिल्मे बनी हो , सन १९४८ में ही करीब १३५ हिंदी फ़िल्में रिलीज़ हुई थी , जिनमे राजकपूर की आग,अमरप्रेम , दिलीप कुमार की शहीद ,घर की इज्जत ,नदिया के पार , देवांनद की ज़िद्दी ,विद्या आदि प्रमुख फिल्म भी शामिल थी।

                       इस फिल्म में अजीत नायक थे और उनकी नायिका मोनिका देसाई थी , इसके अलावा फिल्म में रामायण तिवारी , जयराज, रचना, ई. बिल्मोर , केसरी एवं अमीर बानो की भी अहम भूमिका थी। जाने माने गीतकार दीना नाथ मधोक द्वारा फिल्म के मधुर गीतो के बोल लिखे गए थे , जो उस वक़त की बेहद कामयाब संगीतमयी फिल्म रतन (१९४४) में अपनी प्रतिभा साबित कर चुके थे , दिलकश संगीत ज्ञानदत्त का था और अधिकांश गीतों को गीता रॉय (दत्त) ने आवाज़ दी थी ,उनका एक गीत हैं " उल्फत के दर्द का भी मज़ा लो". १८ साल की जवान गीता रॉय की सुमधुर आवाज़ में यह गाना सुनते ही बनता है. प्यार के दर्द के बारे में वह कहती हैं "यह दर्द सुहाना इस दर्द को पालो, दिल चाहे और हो जरा और हो ".
                       

इसके अलावा फिल्म के अन्य गीत   चंदा की चांदनी की मौज़ है … , काली काली रात है..... , हमको भुला दिया.... , जब काली काली रात होगी दिल से दिल .... , पिया पिया बागो में पपीहा बोले … भी बहुत उम्दा गीत है .