अभिनेता जॉनी वॉकर
-अनिल वर्मा
यह कहा जाता हैं कि रुलाने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है, हंसाना। लेकिन फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध हास्य अभिनेता जॉनी वॉकर ने अपनी मजाकिया भाव-भंगिमाओं से करोड़ों सिनेप्रेमियों को न केवल गुदगुदाया, बल्कि अपनी 'चम्पी' (गीत) से उनकी सारी थकान भी उतारते रहे. वॆसे उनका असल नाम बदरुद्दीन जमालुद्दीन क़ाज़ी था।
.सन 50 और 60 के दशक में हिंदी फिल्मों में कई यादगार भूमिका करने वाले जॉनी वाकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में ११ नवम्बर १९२६ को एक .मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था, वे बचपन से ही अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे और प्राय: वह लोगो की नकल उतार कर सबको हँसाया करते थे | उनके पिता जमालुदीन काजी इंदौर में एक मिल में नौकरी करते थे. मिल बंद होने के बादमुफलिसी के दौर में सन 1942 मेंउनका पूरा परिवार मुंबई पहुंच गया. पिता के लिए अपने 15 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो रहा था.इन मुश्किल हालात में 10 भाई-बहनों में दूसरे नंबर के जॉनी वाकर पर परिवार की जवाबदारी आ गई.और वह छठी जमात तक उर्दू की तालीम हासिल करने के बाद 1942 में अपने पिता के साथ मुम्बई में फल, मूगफली बेचने में जुट गये और जीवनयापन के लिए उन्होंने आर्मी कैंटीन में नौकरी कर ली |फिर कई नौकरी में हाथ आजमाने के बाद आखिर में मुंबई मे उनके पिता के एक परिचित पुलिस इंस्पेक्टर की सिफारिश पर जॉनी वाकर को बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई.वह इस नौकरी को पाकर काफी खुश हो गए थे ,क्योंकि उन्हें मुफ्त में ही पूरी मुंबई घूमने को मौका मिल जाया करता था, इसके साथ ही उन्हें मुंबई के स्टूडियों में भी जाने का मौका मिल जाया करता था.
इसी दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात फिल्म जगत के मशहूर खलनायक एन.ए.अंसारी और के. आसिफ के सचिव रफीक से हुई. फिर उन्हें जल्द ही फिल्मों में भीड़ वाले सीन में खड़े होने का मौका मिलने लगे . जिसके लिए उन्हें रोजाना 5 रुपए मिला करते थे. जिसमें से एक रुपया सप्लायर ले लेता। शूटिंग के बीच में फुर्सत के दौरान सितारों के मनोरंजन के लिए लोग अक्सर बदरूदीन को बुला लेते थे और लतीफे सुनाने को कहते थे । लंबे संघर्ष के बाद जॉनी वाकर को फिल्म 'आखिरी पैमाने' में एक छोटा सा रोल मिला. , लेकिन इससे भी उन्हें कोई पहचान नहीं मिल सकी। इस फिल्म में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 80 रुपए मिले, जबकि बतौर बस कंडकटर उन्हें पूरे महीने के मात्र 26 रुपए ही मिला करते थे। यह कोई 1950 के आसपास की बात है, जॉनी वाकर का बस कंडक्टरी करने का अंदाज काफी निराला था। वह सवारियों के संग खूब मस्ती करते और तरह-तरह की आवाजें निकालकर उनका मनोरंजन करते थे । एक दफा बलराज साहनी की कार खराब हो गई और वह संयोग से जिस बस में जॉनी वाकर कंडक्टरी करते थे ,उसी में चढ़ गए। उन्होंने जॉनी के अनोखे अंदाज को देखा , तो वह उनसे काफी प्रभावित हुए। परन्तु इसके बाद जब 'हलचल' की शूटिंग पर बलराज साहनी ने जब बदरूदीन को दिलीप कुमार, याकूब जैसे स्टार्स का मनोरंजन करते देखा, तो उन्हें बुरा लगा। उन्होंने बाद में बुलाकर बदरूदीन से कहा, 'तुम कलाकार हो, भांड नहीं, कला की इज्जत करना सीखो।' बदरूदीन ने जब अपनी मजबूरी बताई, तो बलराज साहनी ने उन्हें एक आइडिया सुझाया और अगले दिन गुरुदत्त के ऑफिस में आने को कहा। बलराज साहनी उन दिनों 'बाज़ी' की स्क्रिप्ट लिख रहे थे। अगले दिन गुरुदत्त अपने ऑफिस में चेतन आनंद के साथ कुछ डिस्कस कर रहे थे कि बदरुद्दीन अचानक आ धमके और शराबी की ऐक्टिंग शुरू कर दी। उन्होंने न सिर्फ धमाल मचाया, बल्कि गुरुदत्त के साथ बदतमीजी भी शुरू कर दी। हरकतें जब हद को पार करने लगीं, तो गुरुदत्त को गुस्सा आ गया। उन्होंने स्टाफ को बुलाया और शराबी को बाहर सड़क पर फेंक आने का फरमान जारी कर दिया। तभी बलराज साहनी हंसते हुए वहां आ पहुंचे और गुरुदत्त को सारा माजरा समझाया। गुरुदत्त इतने खुश हुए कि पीठ थपथपा कर न केवल उनकी ऐक्टिंग की दिल खोलकर तारीफ की और उनकी प्रतिभा से खुश होकर 'बाज़ी' में फौरन एक रोल दिया,. इसके बाद बदरुदीन ने फिर कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा। यह कहा जाता है कि उन्हें 'जॉनी वाकर' का फ़िल्मी नाम देने वाले गुरु दत्त ही थे. उन्होंने वाकर को यह नाम एक लोकप्रिय व्हिस्की ब्रांड के नाम पर दिया था. हालांकि, फिल्मों में अक्सर शराबी की भूमिका में नजर आने वाले वाकर असल जिंदगी में शराब को कतई हाथ नहीं लगाते थे । जानी वकार ने हिंदी सिनेमा में कॉमेडी को एक नया आयाम दिया था ।हालाकिं जॉनी वॉकर की जो चटपटी आवाज़ दर्शक सुनते थे,वो आवाज़ उनकी बनायी हुई थी ,उनकी वास्तविक आवाज़ भारी थी। उन्होंने फिल्मों में अपनी बेहतरीन अदाकारी का नमूना दिखाने के अलावा कुछ गीत भी गए थे ।
'बाज़ी', 'आर-पार' ', मिस्टर एंड मिसेज 55', 'सीआईडी', 'काग़ज़ के फूल', 'प्यासा' जैसी गुरु दत्त की फ़िल्मों की एक समानांतर पहचान बने जॉनी वॉकर।. गुरूदत्त की फिल्मों के अलावा जॉनी वाकर ने टैक्सी ड्राइवर, देवदास, नया अंदाज, चोरी चोरी, मधुमति, मुगल-ए-आजम, मेरे महबूब, बहू बेगम, मेरे हजूर जैसी कई सुपरहिट फिल्मों मे अपने हास्य अभिनय से दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया .'चोरी-चोरी', 'मधुमती',चौदहवीं का चाँद, नया दौर, मधुमती, प्रतिज्ञा, शिकार 'मेरे महबूब', 'आनंद' आदि फ़िल्मों में जॉनी वॉकर मीठी फुहार की तरह राहत देने आते थे, जब दर्शकों को फ़िल्म की गंभीरता से उबरना मुश्किल लगने लगता था। जॉनी वॉकर के अभिनय में इतनी ऊंचाई थी कि आमतौर पर हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्मों की जगह गंभीर फ़िल्मों की गंभीरता के बर्फ़ को तोड़ने की जवाबदेही उन्हें मिलती थी , जॉनी वाकर की हर फिल्म मे एक या दो गीत उन पर अवश्य फिल्माए जाते थे ,जो काफी लोकप्रिय भी हुआ करते थे. वर्ष 1956 मे प्रदर्शित गुरूदत्त की फिल्म सीआईडी में उन पर फिल्माया गाना' ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हट के जरा बच के ये है बंबई मेरी जान' ने धूम मचा दी. उन्होंने अपने चेहरे के हाव-भाव की बदौलत ही 'जाने कहां मेरा जिगर गया जी' (मिस्टर एंड मिसेज 55), 'सिर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए' (प्यासा) और 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां' जैसे गीतों को सदा के लिए अमर कर दिया. इसके बाद हर फिल्म में जॉनी वाकर पर गीत अवश्य फिल्माए जाते रहे. यहां तक कि फाइनेंसर और डिस्ट्रीब्यूटर की यह शर्त रहती थी कि फिल्म में जॉनी वाकर पर एक गाना अवश्य होना चाहिए. जानी वाकर अपने मासूम, लेकिन शरारती चेहरे से सबको अपनी ओर खींचने का माद्दा रखते थे। रजनीकांत अक्सर कहा करते थे कि बस कंडक्टर से ऐक्टर बनने की प्रेरणा उन्हें जानी वाकर से ही मिली थी।
जॉनी वॉकर एक विनम्र आदमी थे। उन्हें फिल्म मधुमती के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार और फिल्म शिकार के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार मिला था।उन्होंने खूब फिल्में कीं, कई फिल्में बनाईं और फिल्म 'पहुंचे हुए लोग' का निर्देशन किया। उन्होंने 35 वर्षों में करीब ३२५ फिल्मो में काम किया, परन्तु 70 के दशक आने तक कॉमेडी के स्तरमें गिरावट आने के बाद जॉनी वाकर ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया. इसी दौरान ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद मे जॉनी वाकर ने एक छोटी सी भूमिका निभाई. इस फिल्म के एक दृश्य मे वह राजेश खन्ना को जीवन का एक ऐसा दर्शन कराते है कि दर्शक अचानक हंसते हंसते संजीदा हो जाता है. गुलज़ार और कमल हासन के बहुत जोर देने पर वर्ष 1998 मे प्रदर्शित फिल्म चाची 420 मे उन्होंने एक छोटा सा भावनात्मक रोल निभाया था , जो दर्शको को काफी पसंद आया था ।
१९५५ में 'आर पार' की शूटिंग के दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात नायिका शकीला की छोटी बहन नूरजहां से हुई, जिसका एक गीत नूरजहाँ और वाकर पर फिल्माया जाना था. इस गीत के बोल थे 'अरे ना ना ना ना तौबा तौबा.' ।यह मुलाकात पहले मोहब्बत और फिर गुपचुप निकाह में बदल गई। जॉनी वाकर ने परिवार की इच्छा यह निकाह किया था।उन्होंने बांद्रा और फिर अंधेरी में बने अपने बंगले का नाम 'नूर विला' रखा. जॉनी वॉकर और नूर के तीन बेटियाँ कौसर, तसनीम, फ़िरदौस है और तीन बेटे नाज़िम, काज़िम और नासिर हैं । जॉनी वाकर महज छठी कक्षा तक पढ़ाई कर पाए थे. उन्होंने इस कसक को दूर करने के लिए अपने बेटे और बेटियों को अच्छी तालीम दी. एक बेटे को तो उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भी भेजा. उनके बेटे नासिर एक प्रसिद्ध फ़िल्म और टीवी अभिनेता है।
ताउम्र दर्शकों को हंसाते रहे जॉनी वाकर 29 जुलाई, 2003 को सबको रोता हुआ छोड़कर दुनिया से चले गए. उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शोक जताते हुए कहा था, "जॉनी वाकर की त्रुटिहीन शैली ने भारतीय सिनेमा में हास्य शैली को एक नया अर्थ दिया है '' । आज इस महान कॉमेडियन को गुजरे हुए करीब 14 साल बीत चुके हैं,पर उनका मस्तमौला अंदाज और बेजोड़ अदाएगी आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।
-अनिल वर्मा
-अनिल वर्मा
यह कहा जाता हैं कि रुलाने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है, हंसाना। लेकिन फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध हास्य अभिनेता जॉनी वॉकर ने अपनी मजाकिया भाव-भंगिमाओं से करोड़ों सिनेप्रेमियों को न केवल गुदगुदाया, बल्कि अपनी 'चम्पी' (गीत) से उनकी सारी थकान भी उतारते रहे. वॆसे उनका असल नाम बदरुद्दीन जमालुद्दीन क़ाज़ी था।
.सन 50 और 60 के दशक में हिंदी फिल्मों में कई यादगार भूमिका करने वाले जॉनी वाकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में ११ नवम्बर १९२६ को एक .मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ था, वे बचपन से ही अभिनेता बनने का ख्वाब देखा करते थे और प्राय: वह लोगो की नकल उतार कर सबको हँसाया करते थे | उनके पिता जमालुदीन काजी इंदौर में एक मिल में नौकरी करते थे. मिल बंद होने के बादमुफलिसी के दौर में सन 1942 मेंउनका पूरा परिवार मुंबई पहुंच गया. पिता के लिए अपने 15 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण करना मुश्किल हो रहा था.इन मुश्किल हालात में 10 भाई-बहनों में दूसरे नंबर के जॉनी वाकर पर परिवार की जवाबदारी आ गई.और वह छठी जमात तक उर्दू की तालीम हासिल करने के बाद 1942 में अपने पिता के साथ मुम्बई में फल, मूगफली बेचने में जुट गये और जीवनयापन के लिए उन्होंने आर्मी कैंटीन में नौकरी कर ली |फिर कई नौकरी में हाथ आजमाने के बाद आखिर में मुंबई मे उनके पिता के एक परिचित पुलिस इंस्पेक्टर की सिफारिश पर जॉनी वाकर को बस कंडक्टर की नौकरी मिल गई.वह इस नौकरी को पाकर काफी खुश हो गए थे ,क्योंकि उन्हें मुफ्त में ही पूरी मुंबई घूमने को मौका मिल जाया करता था, इसके साथ ही उन्हें मुंबई के स्टूडियों में भी जाने का मौका मिल जाया करता था.
इसी दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात फिल्म जगत के मशहूर खलनायक एन.ए.अंसारी और के. आसिफ के सचिव रफीक से हुई. फिर उन्हें जल्द ही फिल्मों में भीड़ वाले सीन में खड़े होने का मौका मिलने लगे . जिसके लिए उन्हें रोजाना 5 रुपए मिला करते थे. जिसमें से एक रुपया सप्लायर ले लेता। शूटिंग के बीच में फुर्सत के दौरान सितारों के मनोरंजन के लिए लोग अक्सर बदरूदीन को बुला लेते थे और लतीफे सुनाने को कहते थे । लंबे संघर्ष के बाद जॉनी वाकर को फिल्म 'आखिरी पैमाने' में एक छोटा सा रोल मिला. , लेकिन इससे भी उन्हें कोई पहचान नहीं मिल सकी। इस फिल्म में उन्हें पारिश्रमिक के तौर पर 80 रुपए मिले, जबकि बतौर बस कंडकटर उन्हें पूरे महीने के मात्र 26 रुपए ही मिला करते थे। यह कोई 1950 के आसपास की बात है, जॉनी वाकर का बस कंडक्टरी करने का अंदाज काफी निराला था। वह सवारियों के संग खूब मस्ती करते और तरह-तरह की आवाजें निकालकर उनका मनोरंजन करते थे । एक दफा बलराज साहनी की कार खराब हो गई और वह संयोग से जिस बस में जॉनी वाकर कंडक्टरी करते थे ,उसी में चढ़ गए। उन्होंने जॉनी के अनोखे अंदाज को देखा , तो वह उनसे काफी प्रभावित हुए। परन्तु इसके बाद जब 'हलचल' की शूटिंग पर बलराज साहनी ने जब बदरूदीन को दिलीप कुमार, याकूब जैसे स्टार्स का मनोरंजन करते देखा, तो उन्हें बुरा लगा। उन्होंने बाद में बुलाकर बदरूदीन से कहा, 'तुम कलाकार हो, भांड नहीं, कला की इज्जत करना सीखो।' बदरूदीन ने जब अपनी मजबूरी बताई, तो बलराज साहनी ने उन्हें एक आइडिया सुझाया और अगले दिन गुरुदत्त के ऑफिस में आने को कहा। बलराज साहनी उन दिनों 'बाज़ी' की स्क्रिप्ट लिख रहे थे। अगले दिन गुरुदत्त अपने ऑफिस में चेतन आनंद के साथ कुछ डिस्कस कर रहे थे कि बदरुद्दीन अचानक आ धमके और शराबी की ऐक्टिंग शुरू कर दी। उन्होंने न सिर्फ धमाल मचाया, बल्कि गुरुदत्त के साथ बदतमीजी भी शुरू कर दी। हरकतें जब हद को पार करने लगीं, तो गुरुदत्त को गुस्सा आ गया। उन्होंने स्टाफ को बुलाया और शराबी को बाहर सड़क पर फेंक आने का फरमान जारी कर दिया। तभी बलराज साहनी हंसते हुए वहां आ पहुंचे और गुरुदत्त को सारा माजरा समझाया। गुरुदत्त इतने खुश हुए कि पीठ थपथपा कर न केवल उनकी ऐक्टिंग की दिल खोलकर तारीफ की और उनकी प्रतिभा से खुश होकर 'बाज़ी' में फौरन एक रोल दिया,. इसके बाद बदरुदीन ने फिर कभी मुड़कर पीछे नहीं देखा। यह कहा जाता है कि उन्हें 'जॉनी वाकर' का फ़िल्मी नाम देने वाले गुरु दत्त ही थे. उन्होंने वाकर को यह नाम एक लोकप्रिय व्हिस्की ब्रांड के नाम पर दिया था. हालांकि, फिल्मों में अक्सर शराबी की भूमिका में नजर आने वाले वाकर असल जिंदगी में शराब को कतई हाथ नहीं लगाते थे । जानी वकार ने हिंदी सिनेमा में कॉमेडी को एक नया आयाम दिया था ।हालाकिं जॉनी वॉकर की जो चटपटी आवाज़ दर्शक सुनते थे,वो आवाज़ उनकी बनायी हुई थी ,उनकी वास्तविक आवाज़ भारी थी। उन्होंने फिल्मों में अपनी बेहतरीन अदाकारी का नमूना दिखाने के अलावा कुछ गीत भी गए थे ।
'बाज़ी', 'आर-पार' ', मिस्टर एंड मिसेज 55', 'सीआईडी', 'काग़ज़ के फूल', 'प्यासा' जैसी गुरु दत्त की फ़िल्मों की एक समानांतर पहचान बने जॉनी वॉकर।. गुरूदत्त की फिल्मों के अलावा जॉनी वाकर ने टैक्सी ड्राइवर, देवदास, नया अंदाज, चोरी चोरी, मधुमति, मुगल-ए-आजम, मेरे महबूब, बहू बेगम, मेरे हजूर जैसी कई सुपरहिट फिल्मों मे अपने हास्य अभिनय से दर्शको का भरपूर मनोरंजन किया .'चोरी-चोरी', 'मधुमती',चौदहवीं का चाँद, नया दौर, मधुमती, प्रतिज्ञा, शिकार 'मेरे महबूब', 'आनंद' आदि फ़िल्मों में जॉनी वॉकर मीठी फुहार की तरह राहत देने आते थे, जब दर्शकों को फ़िल्म की गंभीरता से उबरना मुश्किल लगने लगता था। जॉनी वॉकर के अभिनय में इतनी ऊंचाई थी कि आमतौर पर हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्मों की जगह गंभीर फ़िल्मों की गंभीरता के बर्फ़ को तोड़ने की जवाबदेही उन्हें मिलती थी , जॉनी वाकर की हर फिल्म मे एक या दो गीत उन पर अवश्य फिल्माए जाते थे ,जो काफी लोकप्रिय भी हुआ करते थे. वर्ष 1956 मे प्रदर्शित गुरूदत्त की फिल्म सीआईडी में उन पर फिल्माया गाना' ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हट के जरा बच के ये है बंबई मेरी जान' ने धूम मचा दी. उन्होंने अपने चेहरे के हाव-भाव की बदौलत ही 'जाने कहां मेरा जिगर गया जी' (मिस्टर एंड मिसेज 55), 'सिर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए' (प्यासा) और 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां' जैसे गीतों को सदा के लिए अमर कर दिया. इसके बाद हर फिल्म में जॉनी वाकर पर गीत अवश्य फिल्माए जाते रहे. यहां तक कि फाइनेंसर और डिस्ट्रीब्यूटर की यह शर्त रहती थी कि फिल्म में जॉनी वाकर पर एक गाना अवश्य होना चाहिए. जानी वाकर अपने मासूम, लेकिन शरारती चेहरे से सबको अपनी ओर खींचने का माद्दा रखते थे। रजनीकांत अक्सर कहा करते थे कि बस कंडक्टर से ऐक्टर बनने की प्रेरणा उन्हें जानी वाकर से ही मिली थी।
जॉनी वॉकर एक विनम्र आदमी थे। उन्हें फिल्म मधुमती के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार और फिल्म शिकार के लिए फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार मिला था।उन्होंने खूब फिल्में कीं, कई फिल्में बनाईं और फिल्म 'पहुंचे हुए लोग' का निर्देशन किया। उन्होंने 35 वर्षों में करीब ३२५ फिल्मो में काम किया, परन्तु 70 के दशक आने तक कॉमेडी के स्तरमें गिरावट आने के बाद जॉनी वाकर ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया. इसी दौरान ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म आनंद मे जॉनी वाकर ने एक छोटी सी भूमिका निभाई. इस फिल्म के एक दृश्य मे वह राजेश खन्ना को जीवन का एक ऐसा दर्शन कराते है कि दर्शक अचानक हंसते हंसते संजीदा हो जाता है. गुलज़ार और कमल हासन के बहुत जोर देने पर वर्ष 1998 मे प्रदर्शित फिल्म चाची 420 मे उन्होंने एक छोटा सा भावनात्मक रोल निभाया था , जो दर्शको को काफी पसंद आया था ।
१९५५ में 'आर पार' की शूटिंग के दौरान जॉनी वाकर की मुलाकात नायिका शकीला की छोटी बहन नूरजहां से हुई, जिसका एक गीत नूरजहाँ और वाकर पर फिल्माया जाना था. इस गीत के बोल थे 'अरे ना ना ना ना तौबा तौबा.' ।यह मुलाकात पहले मोहब्बत और फिर गुपचुप निकाह में बदल गई। जॉनी वाकर ने परिवार की इच्छा यह निकाह किया था।उन्होंने बांद्रा और फिर अंधेरी में बने अपने बंगले का नाम 'नूर विला' रखा. जॉनी वॉकर और नूर के तीन बेटियाँ कौसर, तसनीम, फ़िरदौस है और तीन बेटे नाज़िम, काज़िम और नासिर हैं । जॉनी वाकर महज छठी कक्षा तक पढ़ाई कर पाए थे. उन्होंने इस कसक को दूर करने के लिए अपने बेटे और बेटियों को अच्छी तालीम दी. एक बेटे को तो उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका भी भेजा. उनके बेटे नासिर एक प्रसिद्ध फ़िल्म और टीवी अभिनेता है।
ताउम्र दर्शकों को हंसाते रहे जॉनी वाकर 29 जुलाई, 2003 को सबको रोता हुआ छोड़कर दुनिया से चले गए. उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शोक जताते हुए कहा था, "जॉनी वाकर की त्रुटिहीन शैली ने भारतीय सिनेमा में हास्य शैली को एक नया अर्थ दिया है '' । आज इस महान कॉमेडियन को गुजरे हुए करीब 14 साल बीत चुके हैं,पर उनका मस्तमौला अंदाज और बेजोड़ अदाएगी आज भी लोगों के जेहन में ताजा है।
-अनिल वर्मा